शुक्रवार, 24 मई 2013


कोका कोला का अगला शिकार

-शिवप्रसाद जोशी


1886 में जब अमेरिका के न्यूयार्क में स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी बनाई जा रही थी, उसी वर्ष एक और अमेरिकी प्रतीक, अटलांटा में सामने आ रहा था। थकान और सिरदर्द का उपचार खोजने के साथ अस्तित्व में आई कोका कोला कंपनी विभिन्न देशों में स्थानीय समाजों के लिए सिरदर्द साबित हो रही है। भारत में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल और बाद में एनडीए सरकार के दौर में पांव जमा चुकी कोका कोला कंपनी ने अब नदियों के प्रदेश में पहुंचकर एक तरह से अपने लिए भूजल का तो इंतजाम कर लिया है लेकिन उन लोगों का क्या होगा, नदी के पास रहकर भी जिनके कंठ सूखे और खेत खाली हैं। 


पूरे देश में जल संकट है और सूखे के हालात हैं, बेतहाशा निर्माण, जमीन अधिग्रहण और पेड़ों के कटान ने उपलब्ध भू जल के क्षरण को और तीव्र कर दिया है। विकास और निवेश की बहसें तीखी हो गई हैं। जन भागीदारी और जन सरोकारों के सवाल पीछे धकेल दिए गए हैं। संसदीय राजनीति के तमाम नुमाइंदें वाम हों या दक्षिण सब के सब पत्थर जैसी चुप्पियों में पसर गए हैं। एक अजीब किस्म की विकरालता पूरे देश में हावी है और समाज को डराने चौंकाने के लिए तंत्र से लेकर अपराधी तक अपनी अपनी कार्रवाइयों में जुटे हैं। उदासियों और अवसादों के बीच अखिल खिलखिलाहटों और रंगीनियों के इस दौर में सरकारें अकुलाई हुई और हड़बड़ी में नजर आती हैं। तरक्की का ढांचा बहुराष्ट्रीय कंपनियां तय कर रही हैं। और ये सिलसिला पूरे जोर-शोर से देश के कमोबेश सभी राज्यों में समान गति से जारी है। इसी कड़ी में बात करते हैं अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी कोका कोला की। जिसने आखिरकार भारत में अब एक नया ठिकाना ढूंढ निकाला है नदियों के राज्य उत्तराखंड में। कंपनी राज्य में शीतल पेय का प्लांट लगाने जा रही है जिसमें 600 करोड़ रुपए का निवेश अनुमानित है। दावा है कि एक हजार लोगों को रोजगार मिलेगा। इस तरह कोका कोला का देश में यह 57वां प्लांट होगा।
देहरादून की विकासनगर तहसील के गांव छरबा में यह प्लांट लगाया जाएगा। यह इलाका यमुना घाटी में पड़ता है। यहां आने के पीछे कंपनी का क्या मकसद होगा साफ समझा जा सकता है। वह है पानी की प्रचुरता, जमीन का फैलाव और संसाधनों की सहज उपलब्धता। कुछ गुमान भी कंपनी को होगा ही कि यहां ज्यादा हो-हल्ला नहीं मचेगा। उधर निवेश की हड़बड़ी में लगता है उत्तराखंड सरकार भी कंपनी का पिछला रिकार्ड खंगालना भूल गई।
केरल के प्लाचीमाड़ा प्लांट से लेकर उत्तरप्रदेश में वाराणसी के मेंहदीगंज तक कोका कोला कंपनी अपने प्लांटों को लेकर सवालों और विवादों में रही है। उस पर भू जल के अत्याधिक दोहन और स्थानीय पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी को भी असंतुलित करने के आरोप हैं। केरल का उसका इतिहास तो पारिस्थितिकी के क्षरण की दहलाने वाली दास्तान है। वाराणसी के प्लांट में तो 1999 से ही विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है जब कोका कोला ने अपना प्लांट लगाया था। अब कोका कोला यहां के प्लांट के लिए 50 हजार घन मीटर भूजल से ज्यादा ढाई लाख घन मीटर भू जल की मांग कर रहा है। इसे लेकर वाराणसी के प्रभावित इलाकों में व्यापक विरोध शुरू हो गया है।
2011 में कोका कोला ने सवा सौ साल पूरे किए थे। कंपनी सौ फीसदी स्वामित्व के साथ 1956 में भारत आई थी। उस समय देश में विदेश विनिमय कानून नहीं था। 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह कानून बनवाया। इसके बाद कोक को कहा गया कि वह 40 फीसदी विदेशी स्वामित्व के साथ रहना चाहे तो रहे वरना जाए। कोक नहीं मानी लिहाजा जनता पार्टी के शासन में 1977 में उसे देश से जाना पड़ा। लेकिन विडंबना देखिए कि जो कानून कोक के रास्ते का रोड़ा था, 90 का दशक आते-आते वह रोड़ा लगभग हटा ही दिया गया, कानून लचीला बना दिया गया और 51 फीसदी तक विदेशी स्वामित्व को मंजूरी मिली और भी दूसरी आकर्षक रियायतों के साथ। लिहाजा 1993 में कोका कोला और आक्रामक ढंग से लौट आई। दुनिया का सबसे लोकप्रिय शीतल पेय और दुनिया का सबसे विख्यात ब्रांड अपनी अपार कामयाबी के पिछवाड़े में कितना दुर्दांत हो सकता था, यह सामने आया केरल के प्लाचीमाड़ा प्लांट में। जहां कोका कोला ने स्थानीय पारिस्थितिकी और खेती को लगभग तबाह कर दिया। हाईकोर्ट ने दखल दिया। भारी मुआवजा देना पड़ा। प्लांट भी बंद करना पड़ा। लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था। कोका कोला ने वहां पानी की जो माइनिंग की उसमें 15 लाख लीटर पानी हर रोज अपने प्लांट के लिए निकालती थी। यह एक तरह से धरती को पानी से खाली कर देने जैसा था। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि पानी न कोका कोला का और न ही राज्य सरकार का जो कंपनी को प्लांट लगाने की मंजूरी देती है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट और बरबादी का यह खेल देश के अन्य हिस्सों में भी दोहराया गया। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में कोका कोला को भारी विरोध झेलना पड़ा है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास मेंहदीगंज में कोका कोला प्लांट हैं। भारी विरोध के बीच कंपनी ने बॉटलिंग प्लांट के लिए खप रहे पानी की मात्रा 50 हजार घन मीटर से बढ़ाकर ढाई लाख घन मीटर करने का प्रस्ताव केंद्रीय एजेंसियों को भेजा है। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया है। लोग एकजुट हुए हैं और प्लांट को बंद करने की मांग कर रहे हैं। लोगों का विरोध ही था कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को जांच करानी पड़ी।
कुछ स्वतंत्र जांचों में भी पता चला कि प्लांट से कई जानलेवा पदार्थों का रिसाव होता है। क्रोमियम, लेड और कैडमियम जैसे पदार्थों की मात्रा तय सीमा से ज्यादा पाई गई। राजस्थान के जयपुर के पास कालादेरा प्लांट की यही कहानी है। महाराष्ट्र में थाणे जिले के कुदुस गांव के लोगों को पानी की खोज में दूर जाना पड़ता था और यह मुश्किल कोक की वजह से आई। कोक प्लांट को सरकार सब्सिडी वाला पानी, सब्सिडी वाली जमीन और टैक्स में राहत देती रही और लोगों के कंठ सूखते रहे। तमिलनाडु के शिवगंगा में भी विरोध हुआ। केंद्र सरकार के सेंटर ग्राउंड वॉटर बोर्ड के कई आंकड़े भी कोका कोला प्लांट के भूजल दोहन पर सवाल खड़े करते हैं।
देखते हैं यह लड़ाई कितनी दूर और देर तक जा पाती है। असल में यह लड़ाई आसान नहीं है। यह बहुराष्ट्रीय दानवों के खिलाफ दुनिया के कुछ अत्यंत गरीबों की लड़ाई है। एक ओर वंचित हैं और एक ओर ताकतवर। कहने को तो कोका कोला कंपनी का दावा रहा है कि उसे समर्थन मिलता रहा है क्योंकि वह एक अच्छा कॉरपोरेट पड़ोसी साबित हुआ है। कॉरपोरेट पड़ोस कारोबारियों और कई मीडिया स्वामित्वों के लिए फायदेमंद रहा है जिन्हें कोका कोला और पेप्सी जैसी विशाल मुनाफे वाली कंपनियों से न जाने कितना लाभ पहुंच रहा है। लेकिन आम जन के लिए यह पड़ोस कितना खतरनाक और क्रूर हो सकता है और कितना मनुष्य विरोधी। यह दिख ही रहा है।
पानी को लूटने और पारिस्थितिकी को बरबाद करने के खेल में अकेली कोका कोला नहीं है। अमेरिका की एक और बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सी कोला का भी यही इतिहास है। इतने बड़े पैमाने पर निवेश का झांसा ये राज्य सरकारों को देती हैं कि सरकार में बैठे लोग इसके आगे विभिन्न फायदों के लिए सहसा व्याकुल हो उठते हैं। वाजपेयी की अगुवाई में एनडीए सरकार के दौर में अमेरिकी राजदूत रहे रॉबर्ट ब्लैकविल ने तो बाकायदा कोक के मामले में अमेरिकी शासन की चिंता को वाजपेयी के खास सलाहकार ब्रजेश मिश्रा के सामने जाहिर ही कर दिया था कि भारत के सबसे बड़े अकेले विदेशी पूंजी निवेशकों में एक- कोका कोला की मदद सरकार को करनी चाहिए।
कोक की कुख्याति और जल दोहन भारत तक ही सीमित नहीं है। दुनिया भर में जहां भी कोक या पेप्सी के प्लांट हैं वे छोटे-बड़े विरोधों का सामना कर रहे हैं। फिर वह चाहे लातिन अमेरिका हो या एशिया का कोई और देश। मुक्त बाजार ने बड़े देशों को इन पर्यावरण विरोधी प्लांटों को विकासशील देशों में नदियों के किनारों पर रवाना करने में सफलता पाई है और यह आर्थिक उपनिवेशवाद की एक प्रमुख मिसाल है।
उत्तराखंड की बात करें तो आखिर निवेश कौन नहीं चाहेगा। कौन नहीं चाहता कि राज्य फले-फूले, विकास हो, रोजगार बढ़े समृद्धि आए लेकिन यह भी सोचना ही पड़ेगा कि किस कीमत पर ऐसा किया जाना चाहिए।  बांधों के मामले में भी यही हो रहा है। बड़े बांध बड़ा मुनाफा और बड़ा विस्थापन और बड़ी बरबादी ला रहे हैं। यही बात शीतल पेय के इन बहुराष्ट्रीय निगमों पर भी लागू होती है। निवेश की हड़बड़ी में स्थानीय हितों की अनदेखी एक बहुत बड़ी भूल होगी। क्या कोका कोला कंपनी के साथ करार में इन सब बातों का ध्यान रखा गया है। क्या यह गारंटी कंपनी दे रही है कि वह भूजल का दोहन नहीं करेगी, पानी की किल्लत नहीं होने देगी और उसके प्लांट से कोई स्लज (अपशिष्ट) नहीं निकलेगा और अगर ऐसा हुआ तो उससे होने वाले नुकसान की भरपाई कैसे होगी। क्योंकि कंपनी के अधिकारी इस बारे में भी कई बड़े दावे करते रहे हैं कि पानी को कोई नुकसान वे नहीं होने देंगे। आखिर कोका कोला का निवेश क्या वाकई तरक्की का निवेश है या बरबादी का।
(हिंदी पाक्षिक ‘समयांतर’ से साभार)

रविवार, 12 मई 2013

संस्कृति


जल-विद्युत परियोजनायें

क्या उत्तराखंड कोई लेबोरेटरी है
शिव प्रसाद जोशी उठा रहे हैं कुछ ज़रूरी सवालात -



गंगा की धारा और लोगों की ज़िंदगियां 

-शिवप्रसाद जोशी

गंगा के उद्गम गोमुख और गंगोत्री से कुछ किलोमीटर नीचे उत्तरकाशी की तरफ़ यानी डाउनस्ट्रीम, तीन अहम जलबिजली परियोजनाएं थीं. केंद्र की लोहारी नागपाला और राज्य सरकार की पालामनेरी और भैरोंघाटी. लोहारी नागपाला पर करीब 40 फीसदी काम हो चुका था. बाक़ी दो परियोजनाओं का ऑडिट किया जा चुका था. स्थलीय परीक्षण भी हो चुका था. क़रीब एक हज़ार मेगावॉट क्षमता वाली ये तीनों परियोजनाएं अब बंद हैं. बताया जाता है कि अकेले लोहारी नागपाला में 600 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे.

लोहारी नागपाला में अगर आप आज जाएं तो आपको वहां देखकर लगेगा कि क्या कोई पहाड़ को नोचखसोट कर ले गया है. जैसे किसी ने जंगल में डाका डालकर कुछ पहाड़ कुछ पत्थर कुछ नदी कुछ खेत कुछ ज़मीन चुरा ली हो. सबकुछ बिखरा हुआ सा है. धूल और गुबार है और परियोजना का कबाड़ इधरउधर बिखरा पड़ा है. पहाड़ खोदकर बनाई सुरंगे अब ख़तरा बन गई हैं. गंगोत्री घाटी में भूधंसाव और भूस्खलन की वारदात बढ़ गई हैं. कुदरत का बुरा हाल तो हुआ ही लोग भी बदहाल हुए हैं. पहले जब यहां परियोजनाएं लाई जा रहीं थीं तो स्थानीय लोगों ने भारी विरोध किया था( उस समय उनका साथ देने गिनेचुने ही थे) लेकिन इस विरोध को भी जैसा कि होता है येनकेन प्रकारेण शांत कर दिया गया. रोज़गार और तरक्की के वादे किए गए. ठेकेदारी चमक उठी. कमोबेश यही स्थिति अलकनंदा घाटी में भी हुई.

फिर गंगा की अविरलता का किस्सा उठा. पर्यावरण और विकास के आगे आस्था के सवाल आ गए. और फिर गंगा की स्वच्छता पवित्रता और निर्बाध जल धारा की गेरुआ लड़ाई शुरू हुई. अनशन हुए. लोहारी नागपाला 2008 में बंद कर दी गई और फिर 2010 में पाला मनेरी और भैरोंघाटी का काम जहां का तहां रोक दिया गया. लोग एक बार फिर स्तब्ध और बेचैन रह गए.

उनके खेत जा चुके थे. ज़मीनें जा चुकी थीं. पेड़ कट चुके थे और नदी कटान का शिकार हो चुकी थी. मशीनों और कलपुर्जो का जखीरा जो पहाड़ में धंसा था वैसा ही रह गया. अब मानो ये एक झूलती हुई सी हालत है. इधर जब गंगा को लेकर आंदोलन हो रहे हैं उसमें एक बहस विकास के इस मॉडल को लेकर भी जुड़ गई है. आस्था बनाम पर्यावरण के तर्क विद्रूप की तरह हमारे सामने हैं. और विकास के लंपटीकरण के मेल से अब ये जनविरोधी सियासत का त्रिकोण गठित हो गया है. स्थानीय संसाधनों, उनसे जुड़ी जन आकांक्षाओं और संघर्षों पर इस त्रिकोण की नोकें धंस गई हैं. और उधर आंदोलनों का स्वरूप क्या से क्या हुआ जा रहा है. अपने जंगल पहाड़ नदी बचाने की वास्तविक लड़ाइयों की अनदेखी की जा रही है.

यह लेख Kabadkhana.blogspot.com  से साभार  लिया गया है।

शुक्रवार, 10 मई 2013

पृष्ठभूमि

मित्रो,
उत्तराखंड राज्य की जनता को उसकी  बुनियादी जरूरतों- जल-जंगल-जमीन से, उसके जिन्दा रहने के मूल अधिकारों से और उसे उसकी अपनी सांस्कृतिक पहचान से तेजी से बेदखल किया जा रहा है . राज्य के गठन के इतने वर्षों बाद आज उत्तराखंड की जनता स्वयं को ठगा सा महसूस कर रही है. उत्तराखंड आन्दोलन शहादतों का खून अभी सूखा भी नहीं है कि विकास के नाम पर सब कुछ बेच डालने की होड़ मची हुयी है.
 उत्तराखंड पीपुल्स फोरमउत्तराखंड के सभी गणमान्य नागरिकों, बुद्धिजीवियों, विचारकोंपत्रकारोंसंस्कृतिकर्मियों और लोकतंत्र पसंद ताकतों से अपील करता है कि उत्तराखंड के जन-जीवन से जुड़े आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरण, जल-जंगल और जमीन के प्रश्नों पर उत्तराखंड और उत्तराखंड से बाहर  भी लगातार बहस संचालित की जाये और विकास के नाम पर मची लूट के खिलाफ उत्तराखंड के विकास की एक नयी जनोन्मुख अवधारणा को जनता के सामने लाया जाय. विकास- जिसके केंद्र में उत्तराखंड का सबसे पीछे रह गया आखिरी आदमी हो .
इसी प्रयास में इस  फोरम ने अपनी यात्रा जुलाई'12  में उत्तराखंड में जल-विद्युत परियोजनाओं पर दिल्ली में एक गोष्ठी के आयोजन के साथ की थी . तमाम साथियों के स्नेह और आग्रह के साथ इस वर्ष हमने पहला कार्यक्रम दिनांक 27 अप्रैल'13 को वीर चंद्रसिंह गढ़वाली की स्मृति में "उत्तराखंड: सपने और हकीकत" विषय पर गोष्ठी के साथ किया .
उत्तराखंड पीपुल्स फोरम में आप सभी का स्वागत  है. आपकी राय हमारे लिए, उत्तराखंड के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. इस पहल के परिप्रेक्ष्य में आपके सुझावों का स्वागत है. 

उत्तराखंड पीपुल्स फोरम में आपका स्वागत है !